मैती आंदोलन के जनक कल्याण सिंह को पद्मश्री सम्मान मिलने पर चमोली में खुशी की लहर

गौचर (प्रदीप लखेड़ा) : कुमाऊं एवं गढ़वाल की मध्य स्थली ग्वालदम में जन्में मैती आंदोलन के जन्मदाता कल्याण सिंह रावत “मैती” को गत दिवस राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में राष्ट्रपति भवन में 2020 का सम्मानित पद्मश्री पुरस्कार मिलने पर पूरे चमोली जिले में हर्षोल्लास का माहौल बना हुआ हैं।
दरअसल 1991 में उस समय मैती आंदोलन की संकल्पना धरातल पर उतरी जबकि मैती आंदोलन के जनक कल्याण सिंह रावत राजकीय इंटर कालेज ग्वालदम में बतौर जीव विज्ञान के पद पर कार्यरत थे।युवा अवस्था से ही प्रकृति एवं वन्यजीव प्रेमी रावत ने जब देखा कि प्रति वर्ष करोड़ों रुपए वृक्षारोपण के नाम पर खर्च करने के बाद भी रोपित पौधे विकसित ही हों पा रही हैं, और बंजर भूमि बंजर की ही बंजर पड़ी रही इससे आहत कल्याण सिंह रावत ने पौधारोपण को बढ़ावा देने के साथ ही इसे भावनात्मक रूप से जोड़ने के लिए पौधों को रोपने एवं उसे संरक्षित करने का विचार उभरा इसी के तहत उन्होंने अपने कुछ सहयोगियों को साथ लेकर मैती आंदोलन की नींव रखी।आज पौधों के संरक्षण के लिए चलाए जा रहा आंदोलन देश के अधिकांश प्रदेशों के साथ ही कई विदेशी देशों में भी हाथों हाथ लिया जा रहा हैं। एक तरह से यह आंदोलन पूरी तरह से पर्यावरण के लिए समर्पित है।

क्या है मैैती आंदोलन

इस आंदोलन के तहत गांव की बहिनों के द्वारा विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधों की नर्सरी तैयार की जाती है। गांव में किसी बहिन की शादी होने पर गांव की लड़कियां दूल्हा एवं दुल्हन के हाथों पौधें का रोपण किया जाता हैं।दूल्हा दुल्हन के हाथों शादी जैसे पावन मौके पर रोपित पौधे के प्रति दुल्हन के माता-पिता एवं परिजनों के प्रति भावनात्मक लगाव उत्पन्न होने लगता हैं। और वें इसकी एक बच्चे की तरह परवरिश करने लगते हैं। इससे इस पौधे के विकसित होने की संभावना अन्य रोपित पौधों से कई गुना बढ़ जाती हैं।इस पौधे के रोपण के मौके पर लड़कियां दूल्हे से कुछ पैसा लेकर अपना एक कोष बना कर उसमे रख देते हैं,जिसका उपयोग वें अपने साथ की गरीब बहिनों के उत्थान के लिए करती हैं। इस आंदोलन के जनक कल्याण सिंह रावत को गत दिवस राष्ट्रपति के द्वारा पद्म श्री से सम्मानित किए जाने पर चमोली जिले में काफी अधिक उत्साह बना हुआ हैं।

जूता चोरी की की गलत परंपरा से निजात भी मिल रही
दरअसल लंबे समय से उत्तराखंड में शादी के मौके पर दुल्हन की सहेलियां के द्वारा दूल्हे़ के जूते चूराने की होड़  की परंपरा आम तौर पर देखने को मिल रही हैं। पद्म श्री रावत का मानना हैं कि इस चोर संस्कृति से मैती आंदोलन के जरिए काफी हद तक निजात मिली हैं। अब मैती आंदोलन वाले गांवों में लड़कियां जूते चुराने के बजाय पौधे रोपने के लिए दूल्हें से स्वैछिक धनराशि प्राप्त करती हैं।जिस पर दूल्हें के साथ ही उसके परिजनों में भी खुशी की अनुभूति होती हैं।

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