चुनावी रणभेरी और हमारे ढोली समाज की चिंता

डॉ योगेश धस्माना की कलम से…..

…2022 की चुनाव की रणभेरी बजते ही सियासत दलित और शोषित समाज की सामाजिक आर्थिक स्थिति को सुधारने की दिशा में घड़ियाली आंसू बहाने लगी है। कहीं नेतागण ढोली समाज को अपनी टोपी पहनाते हुए उन्हें ढोल बांट रहे हैं , तो कहीं दलित और जनजाति समाज के लिए सम्मान समारोह आयोजित कर , उन्हें एक बार फिर ठगने का प्रयास कर रहे हैं।

उत्तराखंड की सरकार और दलित नेतृत्व से इतना भर कहना चाहता हूं , यदि आप किस समाज की माली आर्थिक स्थिति को सुधारना चाहते हैं, तो देवस्थान बोर्ड में चयनित 350 मंदिरों में ढोल वादक के पद सृजित करवा कर उन्हें स्थाई रोजगार दिलाने का काम करें। यदि सरकार लोक संस्कृति के संरक्षण के प्रति सचमुच चिंतित है ,तो हमारे पारंपरिक वाद्य यंत्रों के पद संस्कृति विभाग के अंतर्गत स्वीकृत किए जाएं।

राजस्थान सरकार ने कोविड-19 में अपने लोक कलाकारों को गुजारा भत्ता और आर्थिक सहायता के लिए ₹6000 प्रतिमाह देकर उन्हें सहारा दिया। वहीं उत्तराखंड सरकार का पर्यटन विभाग और संस्कृति मंत्रालय उन्हें ₹1000 की धनराशि देकर अपनी पीठ थपथपा रहा है। इसके लिए भी उस ढोली समाज को अपना आधार कार्ड लेकर मुख्यालयों के चक्कर लगाने पड़ रहे हैं।

लोक संस्कृति के संरक्षण का ढोल पीटने वाली हमारी सरकार पाश्चात्य वाद्य यंत्रों को बजाने वाले कलाकारों को ₹3000 का भुगतान एक कार्यक्रम के लिए करती है।  वही हमारे ढोल वादक ओं को इसके लिए ₹500 दिए जाते हैं।  इस पर भी 12% जीएसटी काट दिया जाता है। हैरानी की बात तो यह है कि हमारी गढ़वाली और कुमाऊंनी तथा जौनसारी समाज की संस्थाएं अपने इन लोक कलाकारों के प्रति कितनी संवेदनशील है , कि वह इन प्रश्नों पर हमेशा चुप रहे हैं ।  महज एक दिन के लिए 1 दिन का कार्यक्रम आयोजित कर हमारी यह सामाजिक संस्थाएं किस ढोंग का प्रदर्शन कर रही है यह यक्ष प्रश्न हम सबके सामने खड़ा है।

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